समर्पण

मेरे अन्दर की अच्छाई ही मुझे खा रही है,

लेकिन अच्छाई की परिभाषा क्या है

मैं नहीं जानता….

मैं जीवन और प्रेम दोनों को

बहुत मंद गति से समझा

और जब समझा,

तो समझा,

ये दोनों एक दूसरे से भिन्न है,

प्रेम मंझधार है, तो जीवन किनारा ।

हम प्रेम में होते हुए,

किनारा कभी नहीं पा सकते।

अगर पाना चाहते हैं,

तो प्रेम को प्राप्ति से परे होकर समझना होगा।

मैंने जीवन मे जो भी सिखा,

किसी न किसी के समर्पण से सिखा ।

मैंने वाहन सबसे ज्यादा सावधानी से तब चलाया,

जब मेरे काँधे पर सर रख के तुम सोई,

और जीवन को सबसे ज्यादा गंभीरता से तब लिया,

जब तुमने अपना हाथ मेरे हाथ मे सौंप दिया।

तुम्हारे होठों को चुमते हुए,

या तुम्हारी बाहों में लिपटते मैं वैसे ही होता हूँ,

जैसे कोई भक्त, अपने भगवान की सेवा के दौरान होता है।


मैं किसी स्त्री के साथ सशरीर होना,

उस स्त्री को पाना कदापि नहीं मानता,

उस स्त्री के ह्रदय में बस जाने को मानता हूँ।

ईश्वर की मूर्ति रख लेने से ईश्वर हमारा नहीं होता,

हृदय में रखकर पूजने से होता है।

मैं तुम्हें पाना नहीं चाहता..

मैं तुम्हारा हो जाना चाहता हूँ।

मैं समर्पण को प्रेम से बढ़कर मानता हूँ, समर्पण प्रेम का प्रतिरूप नहीं है, प्रेम समर्पण का प्रतिरूप है।

#Nilesh.

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