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शिवभक्त’ हमेशा कहलाऊँ !
उसी गंगा तट पर खो जाऊँ
जिसका तुम आलेप करो
वही चिताभस्म मैं हो जाऊँ
कण-कण में जहाँ शंकर है
वही घाट बनारस हो जाऊँ
वर दो तुम ! मैं गंगा-काशी
मैं मोक्ष प्रदायक कहलाऊँ
पँचतीरथी या हो राजप्रयाग
मैं अंतकाल में तुमको पाऊँ
शिव शिव का उच्चारण हो
और ‘शिवमयी’ मैं हो जाऊँ
बिल्व धतूरों की माला संग
मैं अस्सी घाट की भोर बनूँ शंख,
मृदंग, घन्टाध्वनी हो मैं
महाआरती का शोर बनूँ
यदि तेज भरो तुम मुझमें
वही महातपा मैं हो जाऊँ
नमः शिवाय का हो गुंजन
हिम शिखरों को दहकाऊं
जो कंठ में तेरे शरण मिले
वही ‘वासुकि नाग’ बनूँ मैं
तेरा एक आदेश मिले जो
प्रलय का अट्टाहास बनूँ मैं
जटाजूट में शरण मिले तो
सुरसरिता की धार बनूँ मैं
तुमसे उद्गम तुममें संगम
हर प्रवाह को पार करूँ मैं
हो प्रमथगण या प्रेत पिशाच
कैलास शिखर पर रह जाऊँ
शिव दर्शन हो शिव वंदन हो
‘शिवभक्त’ हमेशा कहलाऊँ !
‘शिवभक्त’ हमेशा कहलाऊँ !
✍️. जया पांडे ।
नसीर तुरबी ( वो हम-सफ़र था मगर उस से हम-नवाई न थीवो हम-सफ़र था मगर उस से हम-नवाई न थी ) गज़ल हिंदी में ।
कि धूप छाँव का आलम रहा जुदाई न थी
न अपना रंज न औरों का दुख न तेरा मलाल
शब-ए-फ़िराक़ कभी हम ने यूँ गँवाई न थी
मोहब्बतों का सफ़र इस तरह भी गुज़रा था
शिकस्ता-दिल थे मुसाफ़िर शिकस्ता-पाई न थी
अदावतें थीं, तग़ाफ़ुल था, रंजिशें थीं बहुत
बिछड़ने वाले में सब कुछ था, बेवफ़ाई न थी
बिछड़ते वक़्त उन आँखों में थी हमारी ग़ज़ल
ग़ज़ल भी वो जो किसी को अभी सुनाई न थी
किसे पुकार रहा था वो डूबता हुआ दिन
सदा तो आई थी लेकिन कोई दुहाई न थी
कभी ये हाल कि दोनों में यक-दिली थी बहुत
कभी ये मरहला जैसे कि आश्नाई न थी
अजीब होती है राह-ए-सुख़न भी देख ‘नसीर’
वहाँ भी आ गए आख़िर, जहाँ रसाई न थी
एक दूसरे के लिए जीना ।
मैंने नहीं देखा है कभी पापा को
माँ के लिए गिफ्ट खरीदते देते हुए
और न ही
गुलाब के फूल को
माँ के बालों में सहेजते हुए
लेकिन मैंने देखा है पापा को
किचन में रोटियाँ बनाते हुए
और माँ की परवाह करते हुए
और मैंने जाना है
प्रेम की पूर्णता जताने से नहीं
बल्कि एक-दूसरे के लिए जीने से होती है .!

एक ख्वाइश ।.

Mera pyaar
Ek do dafa nai… din me hazaro dafa teri tasveer niharta hu…
main tujhe bhi nahi batata main tujhse kitna pyar karta hu..
