‘अजनबी तुम मुझे ज़िंदगी की शाम में क्यों मिले, मिलना था तो दोपहर में मिलते’ अपनी एक कविता में ये बात अमृता ने इमरोज़ के लिए कहीं है। जब भी कोई अमृता का ज़िक्र करता है तो साथ में साहिर लुधियानवी का भी ज़िक्र करता है पर इमरोज़ को नज़रंदाज़ कर दिया जाता है। बहुत गुस्सा आता है ऐसे लोगों पर , मन करता है उन्हें चीख चीख कर इमरोज़ के बारे में बताऊँ , बताऊँ की कैसे इमरोज़ ने अमृता का साथ तब दिया था जब साहिर किसी और (सुधा मल्होत्रा) के साथ व्यस्त हो गए थे। साहिर कभी वो हिम्मत नहीं दिखा पाए जो इमरोज़ ने दिखाई और ये कहना ग़लत नहीं होगा कि अपने असुरक्षा के भाव को छुपाने के लिए उन्होंने बड़ी आसानी से उसे इंकलाब का नाम दे दिया। कितनी सरलता से साहिर ने लिख दिया कि – ‘भूख और प्यास से मारी हुई इस दुनिया में , मैंने तुमसे नहीं सबसे ही मुहब्बत की है।’ या कि – ‘चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाए हम दोनों।’ जितनी आसानी से साहिर ने ये सब लिख दिया उतना ही मुश्किल अमृता के लिए साहिर को भुला पाना। अमृता ने अपनी ज़िंदगी के अंतिम 40 साल इमरोज़ के साथ गुज़ारे पर अपनी अंतिम सांस तक वो साहिर को नहीं भुला पाई। एक इंटरव्यू में इमरोज़ बताते है कि उन्होंने अमृता की किसी भावना पर कभी आपत्ति नहीं जताई। विभाजन के बाद कई वर्षों तक अमृता ने दिल्ली में ऑल-इंडिया रेडियो के लिए काम किया। हर दिन इमरोज़ उन्हें आॅफिस छोड़ने और आॅफिस से वापस लेने आते थे। अक्सर जब अमृता उनके पीछे उनके स्कूटर पर बैठी होती थी तो अपनी उंगलियाँ उनकी पीठ पर फेर कर कुछ लिखा करती थी। जब एक दिन इमरोज़ ने उनकी लिखावट को समझने की कोशिश की तो उन्हें पता चला वो “ साहिर ” लिखा करती थी “भावना उसकी थी और मेरी पीठ भी उसकी। मुझे बुरा कैसे लग सकता था ? साहिर भी मेरा एक हिस्सा है। उसका नाम मेरी पीठ पर खुदा हुआ है, ” इस किस्से पर इमरोज़ ने हँसते हुए ये प्रतिक्रिया दी थी। इससे पता चलता है कि इमरोज़ ने न सिर्फ़ अमृता से बल्कि अमृता के हर हिस्से से प्यार किया चाहे फ़िर वो हिस्सा उनका रक़ीब ही क्यों न रहा हो। अमृता भी इमरोज़ का प्यार समझती थी इसलिए अपनी आखरी कविता “मैं तुम्हें फिर मिलूंगी” इमरोज़ के नाम कर गई। ‘मैं तुम्हें फिर मिलूंगी। कहाँ , किस तरह ये तो नहीं जानती। शायद तुम्हारी कल्पना की चिंगारी बनकर , तुम्हारे कैनवास पर उतरूंगी।’ ~ ईशा 🌻 ईशा जी द्वारा लिखी amritapritam
Amazing sharr
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Thank you ☺️
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