अमृता प्रीतम ।


अमृता प्रीतम यानि रूहानी इश्क़, आज़ादी, अपनी शर्तों पर जीने वाली बेफिक्र फितरत की मिटटी से गढ़ी गयी एक निराली रूह, जिन्होंने अपनी आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ में लिखा, “मेरी सारी रचनाएं, क्या कविता, क्या कहानी, क्या उपन्यास, सब एक नाजायज बच्चे की तरह हैं। मेरी दुनिया की हक़ीक़त ने मेरे मन के सपने से इश्क किया और उसके वर्जित मेल से ये रचनाएं पैदा हुईं।

अमृता ऐसे परिवार में जन्मीं जहां धार्मिक आधार पर किस्मत तय होती थी, जहां विवाह सात जन्मों का बंधन था। ऐसे परिवार की होकर भी अमृता ने बेख़ौफ़ होकर ब्याह के बाद दो लोगों से प्यार किया जिनमें उनका असली आशिक़ मुसलमान था। अमृता बेहद प्रगतिशील और अपने समय से बहुत आगे की सोच रखती थीं। 16 साल की उम्र में अमृता का प्रीतम सिंह से ब्याह हुआ और विवाहोपरांत अमृता प्रीतम हो गयीं। पति से दो बच्चे होने के बावजूद जुड़ाव नहीं हो पाया और तलाक लेकर दोनों अलग हो गए। अनचाहे ब्याह से नाता तोड़, प्रेम करना आसान नहीं था मगर अमृता ने लीक पर चलने वाली आसान राह चुनी कब?

दिल्ली और लाहौर के बीच, प्रीत नगर में, 1944 में एक मुशायरे में शिरकत करने आये साहिर लुधियानवी पहली बार अमृता से मिले। साहिर साधारण शक्ल-सूरत के और अमृतादिलकश, बला की हसीन, दोनों को प्यार हो गया। साहिर से मुलाकात के बाद अमृता ने लिखा, ‘अब रात गिरने लगी तो तू मिला है, तू भी उदास, चुप, शांत और अडोल। मैं भी उदास, चुप, शांत और अडोल। सिर्फ दूर बहते समुद्र में तूफान है।’ अमृता और साहिर के जिस्म दूर, दिल करीब और रूह एक हो रही थी इसलिए सुर्ख और स्याह रोशनाई से कागज़ पर इश्क उकेरा जाने लगा। साहिर से मुलाकात के वक़्त अमृता विवाहित थीं पर खुश नहीं, इसलिए पति से अलग होने पर सबसे पहले साहिर को सूचित किया। अमृता के लिए साहिर ने नज़्में, गीत और ग़ज़लें लिखकर प्यार ज़ाहिर किया पर रूबरू कभी इज़हार नहीं किया, पर अमृता ने आत्मकथा में खुलकर साहिर से इश्क़ का इज़हार किया।

बकौल फिल्मकार विनय शुक्ला, साहिर की जिंदगी में उनकी माँ सरदार बेगम का पूरा दखल था। साहिर के अब्बा, अम्मी को पीटते सोपति के अत्याचारों से तंग आकर अलग हो, उन्होंने अकेले साहिर की परवरिश की। साहिरको एहसास था कि माँ ने कितनी दिक्कतें झेलकर उन्हें पाला है इसलिए माँ के लिए दिल में प्यार, सम्मान और ज़िंदगी में माँ की बेहद अहमियत थी। साहिर को लगा कि अम्मी, अमृता को बहू के रूप में नहीं स्वीकारेंगी। माँ का मानना था कि तलाकशुदा हिंदू लड़की, वो भी कवयित्री, अच्छी बहू नहीं बन सकती। माँ की वजह से साहिर स्थायी रिश्ते में बंधने से घबराए। माँ के अलावा से सिर्फ अमृता को साहिर की तवज्जो हासिल हुयी। संगीतकार जयदेव ने विनय शुक्ला को किस्सा सुनाया कि साहिर के घर में जयदेव उनके साथ किसी गाने पर काम कर रहे थे। चाय के निशान वाला जूठा कप देख जयदेव ने साफ करने की पेशकश करते हुए कहा, “ये कप कितना गंदा है, लाओ इसे साफ कर दूँ।” तब साहिर ने उन्हें चेताया कि “उस कप को छूना भी मत। जब आखिरी बार अमृता यहां आई थी तो उसने इसी कप में चाय पी थी।” इमरोज़- अमृता की नज़दीकी दोस्त, उमा त्रिलोक के मुताबिक उनका इश्क़ रूहानी यानि प्लेटोनिक था जिसमें आज़ादी थी। एक ही छत के नीचे अलग कमरों में रहने, एक-दूसरे पर इतनी निर्भरता के बाद भी कोई शिकवा, अपेक्षा या दावा नहीं था। इमरोज़ को पता था कि अमृता, साहिर को बेपनाह प्यार करती हैं पर इस बारे में वो काफ़ी सहज थे। वर्ष 1985 में इमरोज़ को गुरुदत्त ने मुंबई बुलाया जो उन्हें साथ रखना चाहते थे। इमरोज़ के मुंबई जाते ही अमृता को बुख़ार आ गया। उधर इमरोज़ ने तय किया कि नौकरी नहीं करेंगे पर बताया नहीं कि वो अमृता के लिए वापस आ रहे थे। जब दिल्ली पहुंचे तो अमृता उनके कोच के बाहर खड़ी थीं और उन्हें देखते ही उनका बुख़ार उतर गया।

इश्क़ में स्त्री बेशक अमृता हो जाए पर इमरोज़ जैसा आशिक़ मिलना असंभव है। किसी पुरुष का हृदय इतना विशाल नहीं हो सकता कि वो जिसे चाहता हो, वो किसी और के इश्क़ में दीवानी हो, फिर भी बेलौस मोहब्बत में जिंदगी गुज़ार देना, इमरोज़ के ही वश की बात थी। इमरोज़ के स्कूटर पर पीछे बैठी ख़यालों में गुम अमृता उंगलियों से उनकी पीठ पर या पेंट-ब्रश से पीठ पर, साहिर का नाम उकेर देती थीं, पर इमरोज़ ने बुरा नहीं माना। अलबत्ता साहिर को इमरोज़ के अमृता के साथ रहने का पता चला, , तो उन्होंने शेर लिखा: “मुझे अपनी तन्हाइयों का कोई ग़म नहीं, तुमने किसी से मोहब्बत निबाह तो दी।”

इमरोज़ के साथ अमृता ने आख़िरी कई साल गुज़ारे। इमरोज़ अमृता की पेंटिंग बनाते और किताबों के कवर भी डिज़ाइन करते । इमरोज़ ने लिखा, “कोई रिश्ता बांधने से नहीं बंधता। ना मैंने कभी अमृता से कहा कि मैं तुमसे प्यार करता हूँ ना कभी अमृता ने मुझसे।” एक कविता में अमृता ने लिखा, ‘अजनबी तुम मुझे जिंदगी की शाम में क्यों मिले, मिलना था तो दोपहर में मिलते।’ साथ रहने का निर्णय लेते समय अमृता ने इमरोज से कहा, ‘एक बार पूरी दुनिया घूम आओ, फिर भी मुझे चुनोगे तो मुझे कोई उम्र नहीं, मैं इंतजार करती मिलूंगी।’ इमरोज ने कमरे के सात चक्कर लगाकर कहा, ‘मैंने पूरी दुनिया घूम ली’, क्योंकि इमरोज की दुनिया तो अमृता थीं।

अमृता ने १९६६ में इमरोज़ के साथ बिना ब्याह किए, एक छत के नीचे रहकर लिव-इन जैसी परिपाटी की शुरुआत की जो क्रांतिकारी कदम था। समाज के ठेकेदारों के अनुसार उनका कदम युवा पीढ़ी के लिए पथभ्रष्ट करने वाला था जिसके लिए उनकी बेतरह जगहंसाई और आलोचना हुयी पर उनको इन बातों से फर्क नहीं पड़ा। साहिर और इमरोज़ से रिश्ते को अमृता ने ऐसे बयां किया, ‘साहिर मेरी जिन्दगी के लिए आसमान हैं और इमरोज़ मेरे घर की छत ।’ अमृता जिस स्वप्नपुरुष की खोज में ताउम्र भटकती रहीं, इमरोज़ के रूप में जीवन की सांझ में उन्हें मिला। अमृता ने इमरोज़ के नाम अंतिम नज़्म ‘मैं तैनू फिर मिलांगी’ पंजाबी में लिखी।

अमृता का आख़िरी वक़्त काफी दर्द और तकलीफ भरा रहा। उमा त्रिलोक लिखती हैं, “इमरोज़ ने अमृता की सेवा करने में अपने को पूरी तरह झोंक दिया। उन दर्दमंद दिनों को अमृता के लिए ख़ूबसूरत बना दिया और उनकी बीमारी को उनके साथ सहा। वो बाद में शाकाहारी हो गयीं थीं। इमरोज़ बहुत प्यार से उनको खिलाते-पिलाते, नहलाते, कपड़े पहनाते, उनसे बातें करते, उन पर कविताएं लिखते, पसंद के फूल लेकर आते जबकि वो इस काबिल भी नहीं थीं कि उनका जवाब दे सकें।”

अमृता प्रीतम पहली महिला लेखिका थीं जिन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। इसके अलावा भारतीय ज्ञानपीठ, पद्म श्री, पद्म विभूषण, पंजाब रत्न सम्मान से सम्मानित अमृता प्रीतम ने 31 अक्टूबर 2005 को आख़िरी सांस ली लेकिन इमरोज़ के लिए अमृता, अब भी साथ हैं, उनके बिल्कुल क़रीब। इमरोज़ कहते हैं, “उसने जिस्म छोड़ा है साथ नहीं। वो अब भी मिलती है कभी तारों की छांव में, कभी बादलों की छांव में, कभी किरणों की रोशनी में, कभी ख़्यालों के उजाले में हम उसी तरह मिलकर चलते हैं चुपचाप, हमें चलते हुए देखकर फूल हमें बुला लेते हैं, हम फूलों के घेरे में बैठकर एक-दूसरे को अपना कलाम सुनाते हैं।”
Nilesh

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