बस का सफ़र बड़ा ही मजेदार होता है। हाँ हर बार तो नहीं पर कभी कभी इतना की वो हमारे दिलो-दिमाग पर एक अमिट छाप छोड़ देता है। हा मुझे कुछ ज्यादा पसंद नहीं है , बस में यात्रा करना !
एक ऐसी ही बस यात्रा मेरी भी थी। मै अपने शहर से पातेपुर जा रहा था। मेरी ट्रैनिंग चल रही थी | मै जल्दी से बस-अड्डे की तरफ भागा। माँ के तिलक करने और दही-चीनी खिलाने की रस्म निभाने में मुझे पहले ही देर हो चुकी थी। अब हमारी माँ हमारी इतनी परवाह जो करती है, अपने बेटे को ऐसे कैसे जाने दे देती। जैसे तैसे मै बस-अड्डे पहुंचा। देखा तो एक बस कड़ी थी और कंडक्टर अपनी फटी आवाज़ में पातेपुर पातेपुर चिल्ला रहा था। खैर मै टिकट लेकर बस के अन्दर पहुंचा। एक ही सीट खाली थी, वो भी एक सुन्दर सी कन्या के साथ वाली। देख के मन गद-गद हो उठा, फिर भी अपनी ख़ुशी को दबाते हुए मै अपना सामान ऊपर टिका कर खुद सीट पर टिक गया। मन में एक दबी से मुस्कराहट उच्छालें मार रही थी। उसका ध्यान तो बस खिड़की के बाहर कपडे के दूकान में टंगे एक पर्स पर था। बहुत मिन्नतें करने के बाद बस को आगे बढाने का कार्यक्रम सुरु हुआ। बस अपना पूरा जोर लगाते हुए,चीखते-चिल्लाते हुए आगे बढ़ने लगी। कुछ दूर बस चली ही थी की उसे रुकना पड़ा। कुछ अतरंगी से लोग ऊपर चढ़े। सामने ही आ के खड़े हो गये। मुझे क्या लेना था मेरी निगाह तो उसके चेहरे के दर्शन करने को लालायित थी। उसका ध्यान मेरी तरफ गया, शुक्र है खुदा का। मैंने अपने अन्दर की सारी ताकत झोकते हुए उस से पूछे “आप भी पातेपुर जा रहे हो?”। उसने हाँ में सर हिलाया। मेरे अन्दर की हिम्मत बढ़ी, मैंने पूछा “आप का नाम क्या है?। उसने मुझपर एहसान जताते हुए कहा “रेखा”। बातों का सिलसिला चलता रहा, बस भी चलती रही। इसी बीच एक स्टॉप आ गया, मेरे बगल की सीट खाली हुई। चार पूर्ण रूप से थके-हारे लोग ऊपर आये। मेरे बगल की सीट पे बिराजमान हो गये। पर उन्हें सारी सीटें साथ में चाहिए थी सो कंडक्टर ने आ के हम दोनों से गंभीर रूप से कहा” भैया आप दोनों पीछे चले जाइए न, चूँकि इनकी तबियत खराब है तो इन्हें साथ में बैठना है”। बीमारी की बात सुन हम तरस खा के पीछे चले गए। बस एक बार फिर आगे बढ़ी। हमारी बातो का सिलसिला भी बढ़ता गया। हमारी अच्छी-खासी दोस्ती हो गयी थी। मैंने सोचा चलो एक दोस्त बन गया। ठंडी हवाओं के कारण उसे नींद आने लगी, वो हमारे कन्धों पर ही सर रख के सो गयी। एक बार फिर से मन में लड्डू फुटा। अभी उसका सर हमारे कन्धों पर अच्छे से पहुंचा भी नहीं था की एक बार फिर से बस रुकी, कुछ मरियल से लोग फिर नज़र आने लगे। हरकतों से मुझे अंदाज़ा हो गया की ये भी बीमार आदमी पार्टी की सदस्य हैं। एक बार फिर से कंडक्टर का निशाना हम बने। इस बार हमसे हमारी सखी के साथ बिलकुल पीछे जाने की गुजारिश की गयी। झल्ला के हमने चिल्ला के बोला “अरे भाई बस चला रहे हो की एम्बुलेंस। कहाँ से इतने सारे बीमारों को पकड़ लाये हो”। लड़की के कहने पे हम शांत हो के पीछे चले गए। हमारी बाते फिर से आगे बढ़ी हमने पूछा “फेसबुक यूज़ करती हो” उसने कहा “हाँ”। हमने फटाफट फ़ोन निकाल के उसको फ्रेंड-रिक्वेस्ट भेजा। उसने भी उसी गति से उसे स्वीकार किया। हमलोग पातेपुर पहुँचने वाले थे। हमने सोचा की अब फेसबुक के भरोसे बैठे तो नहीं रह सकते ना, सो क्यों न उस से उसका फ़ोन-नंबर लिया जाए। हमने अपने अन्दर की समूची ताकत झोंक के उस से उसका नंबर मांगने की हिमाकत भी कर डाली। उसने धीरे से हमारी तरफ अपना चेहरा घुमाया, अपनी आँखों को मेरी आँखों के अन्दर झांकते हुए बिन बोले ही ऐसे भाव जताए जैसे मैंने उस से उसका नंबर नहीं उसकी दोनों किडनियां मांग ली हो। उसी क्षण हमें हमें अहसास हुआ की कैसे एक औरत दुर्गा और काली का रूप लेती होंगी। मैंने धीरे से अपना सर दूसरी तरफ घुमाया और उधार ही छोड़ दिया। उसने फिर कंधे पे थपथपाया और अपना फ़ोन मेरे हाथ में देते हुए कहा इस से अपने नंबर पे फ़ोन कर लो। एक पल को ऐसा लगा जैसा वो अपना नंबर नहीं बिल गेट्स की सारी सम्पति मेरे नाम कर रही हो। मैंने उसके फ़ोन से खुद को ही फ़ोन किया, धीरे धीरे चीखता हुआ मेरे मोबाइल गाने लगा “कैसे मुझे तुम मिल गयी, किस्मत पे आये न यकीं”। मैंने फ़ोन कटा और उसका नाम अपने फ़ोन में “बस वाली” के नाम से सेव कर लिया।धीरे धीरे बस चरमराते हुए बस रुकी। सभी धीरे-धीरे उतरे। मै भी उतर के अपने घर को जाने लगा की उसें पीछे से आवाज लगायी ”फ़ोन करते रहना’। मैंने हाँ में सर हिलाया और आगे बढ़ता चला गया। बस इतनी से थी मेरी बस की यात्रा।
#nilesh
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Its a memorable journey
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Thanks, Nilesh.
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