बांध कर घुँघरू अपने पैरों में वो,
अपने पेट की आग बुझाती हैं….
नाचती हैं भारी महफ़िलो में,
पर तन्हाई में अश्क़ बहाती हैं…..
बेचती हैं अपने ज़िस्म को तवायफ़ है जो,
वो शरीफों की हवस मिटाती हैं…..!
ना जाने क्यों एक औरत होकर भी,
अपने दर्द को वो छुपाती हैं….!
क्या सुनी हैं किसी ने उसके घुँघरू के लफ़्ज़ों को,
कितना रोते हैं उसके कदम,
पर फिर भी वो एक औरत,
लाखों का दिल बहलाती हैं…..!
मिटाने की खातिर अपने पेट की भूख को,
वो कितनी वहशियत मिटाती हैं……!
आखिर वो भी हिस्सा है हमारे समाज का,
जीती हैं घुट घुट कर, अश्क़ छुप छुप कर बहाती हैं….
रहती हैं वो उन बदनाम गलियों में,
कोठो की महफ़िल सजाती हैं…..
देकर नाम उसे “तवायफ़” का,
बदनाम ना कर उसके सम्मान को,
एक वो ही हैं, जो अपने ज़िस्म को बेच कर,
अपने बच्चों को दाना खिलाती हैं…!
गर लिख सका मैं तक़दीर उसकी,
तो शायद लिख दूँ हर खुशी उसके नाम,
क्योंकि जनाब, वो तवायफ़ होकर भी,
होती नहीं हैं बदनाम…..!
#निलेश
Wowww!!
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Thanks
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Bahut hi umda lekhan…….Tawaayaf ki jindgi bahut hi vichitra aur dayniya hai….jise aapne bakhubi utaaraa hai.
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Thanks Sir
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High thinking for a tawayaf.👌👌
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