गली-ए-यार से गुजरे जो एक रोज़ हम यूँ ही,
तो उनकी खिड़की पर कोई नज़रें गढ़ाए बैठा था,
गुज़र ही चुका था आखिर दौर-ए-मलकियत अपना तो,
अब कोई और था जो खुद को उनका महबूब कहता था।
-Nilesh
गली-ए-यार से गुजरे जो एक रोज़ हम यूँ ही,
तो उनकी खिड़की पर कोई नज़रें गढ़ाए बैठा था,
गुज़र ही चुका था आखिर दौर-ए-मलकियत अपना तो,
अब कोई और था जो खुद को उनका महबूब कहता था।
-Nilesh